हर पल खुशी की चाह में
पल पल घिसती जिंदगी,
रोजमर्रा की चिक-चिक में
यों कुढ़ती सि जिंदगी,
अक्सर सोचता हूं मैं
तुम खुश क्यों नहीं हो ,
क्यों बिना बात की
बात पर झल्ला उठती हो
क्यों सबसे
नाखुश नाराज सी रहती हो
क्यों जीती हो कितने यथार्थ में ?
कोरी काल्पनिक ना सही
पर थोड़ी काल्पनिक तो बनो
माना कि नीरे कल्पना भरे
जीवन का अंत दुखद हो सकता है
पर क्या कल्पना बिना जीना
नीरस नहीं हो जाता ,
और जिस जीवन में रस नहीं
आनंद नहीं ,
वह जीवन
क्या जीवन कहने कहलाने योग्य है ?
यह भी माना कि
रस भोग का आमंत्रक है
और भोग विलास का ,
पर क्या इसीलिए हम
अपने जीवन को नीरस बना ले
की विलासिता तो गलत है (बाधित है)
हमारे मतानुसार ,
मुझसे पूछो तो कहूंगा
कि जीवन को
एक उत्सव बना लो
समस्याओं से विचलित नहीं होओगे ,
क्योंकि उत्सव तो आनंद देता है
और आनंद से परिपूर्ण होओगे तो
कुंठा निराशा अवसाद
खुद-ब-खुद भाग जाएगा...