रिस्ते , रोज रिसते हैं ये रिस्ते ,
घाव गहरा हो या मामुली
पर हर रोज बह रही हैं इनसे मवाद,
शुरू शुरू में हम
नाक - भोहं सिकोड़ते थे
इन रिस्तों कि दुर्गन्ध पे ,
पर घिरे - घिरे
हम सब आदी हो जाते हैं
इस गंध के
और अहीस्ता - आहीस्ता
रिस्तो के रिसाव से उपजी गंध
कि समस्याऐ कम होने लगती हैं
क्योकी
समस्याऐ तो संवेदना और ज्ञान से उपजती हैं ,
जड़ता भी तो
समस्याओ का समाधान हो सकता हैं !
पर विचलित मन जड़ता कहाँ से लाये .....
रिस्तों का अवीलम्भ
स्वार्थ के स्तम्भ पे हि टिका हैं ,
प्रेम तो कहीं हैं हि नहीं
सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ हैं
जिसके बल पे रिस्ते चल रहे हैं ।
कभी कभी तो
घिन्न आती हैं अपने इस आडम्बर भरे जीवन से ....।
उपकार का " कसमें वादे प्यार वफा.. झूठे नाते हैं नातो का क्या ......
अनायास हि
जब तब कोंधती रहती
ऐसी रचनाये मुझ जैसे लोगों को
....