शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

रिस्ते

रिस्ते , रोज रिसते हैं ये रिस्ते ,

घाव गहरा हो या मामुली

पर हर रोज बह रही हैं इनसे मवाद,

शुरू शुरू में हम

नाक - भोहं सिकोड़ते थे

इन रिस्तों कि दुर्गन्ध पे ,

पर घिरे - घिरे

हम सब आदी हो जाते हैं

इस गंध के

और अहीस्ता - आहीस्ता

रिस्तो के रिसाव से उपजी गंध

कि समस्याऐ कम होने लगती हैं

क्योकी

समस्याऐ तो संवेदना और ज्ञान से उपजती हैं ,

जड़ता भी तो

समस्याओ का समाधान हो सकता हैं !

पर विचलित मन जड़ता कहाँ से लाये .....

रिस्तों का अवीलम्भ

स्वार्थ के स्तम्भ पे हि टिका हैं ,

प्रेम तो कहीं हैं हि नहीं

सिर्फ  और सिर्फ स्वार्थ हैं

जिसके बल पे रिस्ते चल रहे हैं ।

कभी कभी तो

घिन्न आती हैं अपने इस आडम्बर भरे जीवन से ....।

उपकार का " कसमें वादे प्यार वफा.. झूठे नाते हैं नातो का क्या ......

अनायास हि

जब तब कोंधती रहती

ऐसी रचनाये मुझ जैसे लोगों को
....

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