मुझसे नहीं होता
कि मैं तुम्हें बुलाऊं
पर क्या तुम्हें
बुलाने के लिए
यही जरूरी रह गया है
क्या मेरा बेवजह का
गुस्सा तुम्हें समझ नहीं आता
क्या मेरा बोलते बोलते
यूं ही
चुप हो जाना
तुम्हें समझ नहीं आता
क्या मेरे दर्द पे
मेरा सर्द
सा मुस्कुरा देना
तुम नहीं समझते
मेरी इन आंखों का
खालीपन
क्या तुम्हें
कुछ नहीं कह पाता
मेरी खामोशी में छुपी
तेरी आरजू भी
क्या तुम्हें महसूस नहीं होती
मेरी बिखरी बिखरी सी
जिंदगी को समेटने का
क्या तुम्हें कभी ख्याल नहीं आया
और गर
यह सब भी
तुम्हें समझ नहीं आता
तो क्या
लफ़्ज़ों के बयान से
मैं तुम्हें पा लूंगा...
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